11 मई, 2005

अनुगूंज 10 – एक पाती सिन्दुरिया के नाम

प्रिय मित्रों,
रविजी का आमंत्रण आज रवि के सिन्दुरिया किरणों में दिखा । वो भी ठीक उस समय जब प्रभात किरणें आम के पेङ की कोपलों पर पङ रही थी । एक-एक डाल, पात सब सिन्दुरिया रंग में रंगे थे। सिन्दुर का नाम लेते ही, किसी नवेली दुलहिन की सिन्दुरिया माँग याद आ जाती है । जब शादी की सुबह सिन्दुर भरे माँग में नारी, सौन्दर्य एवं ममत्व की साक्षात् प्रतिमा जान पङती है । नव दम्पत्ति के सिन्दुरी सपने, उन्हें क्षितिज पर तैराती भी रहती है ।
Akshargram Anugunj

अभी इतनी दूर क्षितिज पर न जाकर बस दस मीटर की दूरी पर स्वतः उगे हुए आम की छाया में चलें । हमारे घर के सामने एक छोटी सी फूलों की बगिया है । आठ-दस साल पहले उसी के दूर कोने में फेंके गये आम की गुठलियों से काफी पौधे उग आये थे । भूगर्भ से आम के उन नन्हें पौधों की गुठलियों से साबुत गरी निकालकर मैं उसका एक कोना पत्थर पर घिस लेता । बस बन जाती थी सीटी हमारी । पैं – पों वाली सीटी को कमरे में बजाने से माँ को काफी चिढ थी । तब से सीटी बाहर ही बजने लगी । इसी सीटी की आवाज में बढने लगा, एक आम का पौधा जिसको मैनें उखाङ कर सीटी न बनायी थी ।
फिर चला गया मैं बाहर पढने के लिए। पढाई के दौरान उस आम के पौधे के साथ संपर्क टूट गया । फिर तो उस पौधे की डालियाँ बढकर छोटा छितरैया पेङ भी बन गयी । करीब दो साल के बाद एक दिन बगान की सफाई के दौरान , पिताजी को मैंने कहा कि इस गुठली से उगे आम के नन्हे पेङ को काट क्यों न दिया जाए । यह आम का पेङ बङा होकर अपने छाँव से पुरा बगान ही लील लेगा, मैं फिर फूल के पौधे कहाँ रोपूँगा , आवारा गुठली वाले आम का फल क्या मीठा होगा । वो मेरी बात को अनमने ढंग से सुन रहे थे । क्योंकि वृक्षप्रेमी पिताजी का अगर बस चले तो हमारे पुरे घर के परिसर को वन-विभाग में बदल दें । मेरे तर्कों पर पिताजी कहने लगे कि यह संभवतः सुरजापूरी आम का पेङ होगा । सुरजापूरी आम हमारे इलाके का मध्यम आकार का खुब मीठा आम होता है । पुनः मेरे अनुरोध पर कहने लगे कि सिर्फ एक साल इसका आम देख लेते हैं, अगर बीजु जैसा खट्टा हुआ तो काट देना । कहकर उन्होनें जङ की मिट्टी को फिर ठीक कर दिया और लटकते डालों को बाँस की कमाची से खङा कर दिया ।

दिन बीतने लगे, धूप, वर्षा की मार को सहकर वह छोटा पेङ भी बन गया । एक वसंत उसमें मुकुल भी आए । कोयल की कुहू - कुहू भी सुनाई पङने लगी । पानी डाला जाने लगा उसके जङ में। फल क्या होगा पता नहीं मगर पिताजी कहीं से लाकर दवाईयों का छिङकाव भी कर गये । मंजर से टिकोले , फिर टिकोले आम में परिवर्घित हुए । अब यह आम अपने बङे आकार के कारण न तो मध्यम आकार के सुरजापूरी जैसा देखने में लगता था , न ही छोटका बीजु जैसा । पहरेदारी होने लगी आम की । कभी दूसरों का आम झटकने वाला मैं उस्ताद , अपने आमों को किसी बाहरी आदमी को छुने भी नहीं देता ।

अब इन आमों का रंग सिन्दुरी होने लगा। एकाध पककर टपक गये। धरती माँ की संपत्ति को पेङ ने प्रसाद स्वरुप प्रदान किया । फिर भी हमारे घर की रीति के अनुसार भगवान को प्रसाद चढा कर हम सबने उस आम को चखा। कभी कभी नियमित पकवानों को जब पूजा-पाठ के ख्याल से पकाया जाता है तो उसका स्वाद दुगुना हो जाता है । मगर पूजा में चढे आम का मीठापन पेङ के बाकी आमों में भी बना रहा । आमों का स्वाद तो काफी मीठा है ही, सुरजापूरी का स्वाद से यह स्वाद कुछ विशिष्ठ भी है । चार साल हो गये इस प्रसंग के । आसपास के पेङों में आम आये न आये इस सिन्दुरिया का आँचल खाली न जाता है । आजकल लदा पङा है यह आमों से , पिताजी भारी हो रहे डालों को बासों के दर्जन भर सहारे से टिकाये हैं । अब तो इसे काटने का याद पङते ही देह सिहर जाता है । बहुत पहले जब वह छोटा ही था, ठीक उसके जङ के पास घर की नियमित चाहरदीवारी भी खङी करनी पङी थी। मगर पंचफुटिया चाहरदीवारी से परे, आजकल सङक पर वह बच्चों के लिए कच्चे ही सही मगर वह कुछ आम टपकाता ही रहता है ।

सिन्दुरिया की प्रेरणा उन हजारों आवारा गुठलियों के लिए भी है , जिन्हें संरक्षण चाहिए विकास के लिए । जिनमें अधिकतर खट्टे बीजु हो सकते है परन्तु बाकी थोङे को भी अगर अपनी क्षमताओं एवं प्रतिभाओं को दिखाने का मौका मिले तो परिणाम बेहतर होंगे । आवश्यकता है तो कुछ वृक्ष प्रेमियों की ।

आपका,
प्रेम ।

07 मई, 2005

विश्वास का एक आवरण

जिन्दगी की खुली किताब के
श्वेत-श्याम उन पन्नों को,
मौसमी बयारों से बचाता है
विश्वास का एक आवरण ।

अनजानी राहों का मुसाफिर
गलियों से जब गुजरता है,
फीकी हँसियों से बचाता है
विश्वास का एक आवरण ।

मैखाने का खनकते प्यालों ,
धुमिल चेहरों के धुँए के बीच,
अनास्क्ति की चादर ओढाता
विश्वास का एक आवरण ।

राही जब थकने लगता है,
सराय जब पास बुलाता है,
शक्तिपुंज सा न रुकने देता
विश्वास का एक आवरण ।

02 मई, 2005

गुरु दक्षिणा

एकलव्य सा सीखा है मैनें,
कलम एक दिन यहाँ पकङना,
शब्द बाणों में फिर धार करना,
पहले तरकश मेरी खाली थी ।

अपनी लेखनी की सुर्ख स्याही से,
तुम भरते जाना इन पन्नों को -
यही ज्ञानदा ने तुझसे कहलाया ,
जब कलम पहचान चाहती थी ।

सैकङों आँखों के इन पन्नों पर,
तथ्य, भावों के ज्ञान-सागर से,
चुने मैनें वे बिखराये मोती ही,
तुमने जो बारंबार छितराये थे ।

मैं भी जलाऊँ कुछ दीप यूँ ही,
और दक्षिणा में क्या दूँ मैं भी ।
या माँग ले मेरा अँगुठा फिर तू ,
द्रोणाचार्य ने कभी जो माँगा था ।