20 फ़रवरी, 2005

बरगद का एक पेङ

एक पक्की सङक के किनारे काफी सारे पेङ हैं । हरेक पेङ का अपना एक विशिष्ट महत्व भी है । लेकिन मुझे बरगद हमेशा से प्यारा लगता है । धार्मिक कारणों से ही नहीं, प्रकृति की रचना और विधाता की कल्पनाशीलता के कारण भी। बहुत बङा होता है न, इसलिए सबको बैठने का आश्रय देता है । इसका न तो लकङी, न ही फल मनुष्य के किसी काम का होता है । हाँ, पक्षियाँ इसके फलों को बङी चाव से खातीं है । काफी घना होने के कारण फिर घोंसला भी बनाती है । इसकी जटाओं से बच्चे झुला बनाकर झुलते हैं । हमारे धार्मिक रिवाजों के अनुसार लोग इसकी पूजा भी करतें हैं । दिर्घायु होता है यह पेङ । सैकङों पथिक आते, इसके छाया में विश्राम करते, फिर चले जाते है । समय के साथ-साथ, धीरे-घीरे इसका तना कमजोर होने लगता है । फिर एक दिन यह तना खोखला भी हो जाता है । लेकिन इन दिनों में खेलने वाली ये जटाएँ, आधार पर पहुँचकर शक्तिशाली होने लगती हैं । जङों जैसी दिखने वाली ये लताएँ तना बन जाती हैं । बरगद के इस साम्राज्य का इतना बङा दायित्व, उसके आशाएँ - इन नव स्थापित स्तंभों पर जरुर कष्टदायक होता होगा । यूँ तो उसी बरगद के प्रसारित बीज पौघा बनकर दीवारों के दरारों में भी जगह बना लेता है । लेकिन या तो उसे काटकर हटा दिया जाता है या उसकी जङे उसी पर फिर से एक नया साम्राज्य बनाने लगती हैं । चाहे पेङ नये हो या पुराने, पेङों के लटकती लताएँ या उसकी जङें काफी सख्त होतीं है । पेङ की विशालता और उसका अस्तित्व उसके इसी गुण के कारण है । अगर पुनर्जन्म की अवधारणा सही है तो विधाता से मेरी कामना है, मुझे ऐसा ही एक पेङ बना देना , क्योंकि इस जन्म में यह सिर्फ एक प्रेरणाश्रोत ही बन सका ।