23 फ़रवरी, 2005

बस ऐसा ही कुछ मै हूँ ।

बस ऐसा ही कुछ मैं हूँ ।

तेज हवाओं के थपेङो से
चोटिल हास्यालंकृत होकर
,
धरती माँ के हरे आँचल पर
गिरकर शांत हो जाता हूँ ।

बस ऐसा ही कुछ मैं हूँ ।

श्यामल घटाओं के संघर्ष में
उलझे पतंगो के डोरों बीच
,
टुट जाता है अंतिम तंतु जब
छोटी पतंग के सहारे उङता हूँ ।

बस ऐसा ही कुछ मैं हूँ ।

सुनामी की प्रचंड लहरों से
बालुका राशि से पदच्युत
,
समंदर के असीम छाती पर
तिनके के सहारे बहता
हूँ

बस ऐसा ही कुछ मैं हूँ ।

दशहरे के भीङ-भरे मेले में
शोर-संगीत, पुजा-अर्चना के बीच
,
जब अनमोल बंधन जब टुट जाता है
फिर विश्वत बंधन में बंध जाता हूँ

बस ऐसा ही कुछ मैं हूँ ।

उन्हीं राहों के अनजान पथिक
जो साथ हँसते, गाते और रोते थे
,
उनको खोने का दुःख तो होता है
फिर प्रेमवश सपनों मे मिल आता हूँ ।

बस ऐसा ही कुछ मैं हूँ ।

3 टिप्पणी

At 2/25/2005 10:45:00 am, Blogger debashish कहते हैं...

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At 2/25/2005 10:56:00 am, Blogger विजय ठाकुर कहते हैं...

सही है…बहुत ही सही है आपकी कविता……ऐसा ही कुछ मैं हूँ…बधाइयाँ

 
At 2/25/2005 01:01:00 pm, Blogger Raman कहते हैं...

स्वागतम् ! बहुत खुशी हुई आपका हिन्दी ब्लाग पढ़कर !!

 

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