बस ऐसा ही कुछ मै हूँ ।
बस ऐसा ही कुछ मैं हूँ ।
तेज हवाओं के थपेङो से
चोटिल हास्यालंकृत होकर,
धरती माँ के हरे आँचल पर
गिरकर शांत हो जाता हूँ ।
श्यामल घटाओं के संघर्ष में
उलझे पतंगो के डोरों बीच,
टुट जाता है अंतिम तंतु जब
छोटी पतंग के सहारे उङता हूँ ।
बस ऐसा ही कुछ मैं हूँ ।
सुनामी की प्रचंड लहरों से
बालुका राशि से पदच्युत,
समंदर के असीम छाती पर
तिनके के सहारे बहता हूँ
दशहरे के भीङ-भरे मेले में
शोर-संगीत, पुजा-अर्चना के बीच,
जब अनमोल बंधन जब टुट जाता है
फिर विश्वत बंधन में बंध जाता हूँ
बस ऐसा ही कुछ मैं हूँ ।
उन्हीं राहों के अनजान पथिक
जो साथ हँसते, गाते और रोते थे,
उनको खोने का दुःख तो होता है
फिर प्रेमवश सपनों मे मिल आता हूँ ।
3 टिप्पणी
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सही है…बहुत ही सही है आपकी कविता……ऐसा ही कुछ मैं हूँ…बधाइयाँ
स्वागतम् ! बहुत खुशी हुई आपका हिन्दी ब्लाग पढ़कर !!
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