आँसु की तीन बूँदे ।
पुछो उससे, जिसका अपना आज नहीं आया,
देखो उसे, रात भर जिसने आँखे बिछाई हैं ,
बैठो वहाँ, जहाँ पुतलियाँ न हिलती हो ,
सिर्फ गालों पर आँसु नहीं, ठंडी ओस की बूँदें है।
गर्म चेहरे पर, अकेलेपन के साथी वे,
बूँदें खुद ही आती हैं, अपनापन लिए,
भरी आँखों के झरने से अनवरत बहती,
वे टपकती आँसु नहीं, एक शीतल नहान है ।
पाषाण को, जब अपना गर्व भी साथ न देता है,
बंद कमरे मे , आँखो से वक्ष पर उतरते,
वही आँसु पाषाण को फिर मोम बनाते हैं ।
1 टिप्पणी
बड नीक कविता अछि प्रेमजी ।
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