27 अप्रैल, 2005

आँसु की तीन बूँदे ।

पुछो उससे, जिसका अपना आज नहीं आया,
देखो उसे, रात भर जिसने आँखे बिछाई हैं ,
बैठो वहाँ, जहाँ पुतलियाँ न हिलती हो ,
सिर्फ गालों पर आँसु नहीं, ठंडी ओस की बूँदें है।

गर्म चेहरे पर, अकेलेपन के साथी वे,
बूँदें खुद ही आती हैं, अपनापन लिए,
भरी आँखों के झरने से अनवरत बहती,
वे टपकती आँसु नहीं, एक शीतल नहान है ।

देखा है, पाषाण ह्रदय भी जब दुःखी होता है,
पाषाण को, जब अपना गर्व भी साथ न देता है,
बंद कमरे मे , आँखो से वक्ष पर उतरते,
वही आँसु पाषाण को फिर मोम बनाते हैं ।

1 टिप्पणी

At 4/29/2005 05:34:00 am, Blogger विजय ठाकुर कहते हैं...

बड नीक कविता अछि प्रेमजी ।

 

एक टिप्पणी भेजें

<< चिट्ठे की ओर वापस..