01 जुलाई, 2006

कुछ होंठ मुस्काते हैं ।

कुछ होंठ मुस्काते हैं,
थिरकते हैं कुछ बातें,
बातों में मिसरी घोल,
कहते हैं,कुछ अनमोल ।

रिश्तों-नातों से परे,
बिना कोई बंधन के,
बिना वादे-फरियाद के,
प्रीत का बस एक डोर ।

यूँ ही न आती है यह,
तपना पड़ता है उन्हें,
तपिश जीवन सहकर,
परहित में अब जीते हैं ।

छोड़ जाते है अमिट,
एक स्फुर्त मुस्कान ।
सम्मोहित मानवमन को,
उनका स्मरण भी काफी है ।

3 टिप्पणी

At 7/01/2006 10:21:00 pm, Blogger Pratik Pandey कहते हैं...

प्रेम पीयूष जी, कहाँ ग़ायब थे इतने दिनों से आप। लेकिन वापसी पर इस श्रेष्ठ कविता ने सारी भरपाई कर दी। उम्मीद है अब आप निरन्तर लिखेंगे।

 
At 7/02/2006 08:20:00 pm, Anonymous बेनामी कहते हैं...

सुन्दर कविता है ।

 
At 5/08/2013 06:53:00 pm, Blogger Tamasha-E-Zindagi कहते हैं...

बहुत खूब लिखी रचना | ब्लॉग फॉलो करने के लिए विजेट लगाने की कृपा करें | आभार

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