12 जुलाई, 2005

और नज्म़ जिन्दा रह गये

जिन्दगी थी, मस्ती भी थी,
दौलत थी, इक गश्ती भी थी ।

इक जवानी थी, रुबाब भी था,
दिवानी थी, इक ख्वाब भी था ।

हँसती गलियों में नकाब भी था,
रंगीनियों का इक शबाब भी था ।

जुमेरात शायद वह आबाद भी था,
जुम्मे के रोज़ वह बरबाद भी था ।

उस शाम साक़ी भी साथ न था ,
दो नज्म़ ग़ज़लों का बस याद था ।

2 टिप्पणी

At 7/12/2005 05:56:00 pm, Blogger Unknown कहते हैं...

सही कहा है सरकार ने।

 
At 12/18/2005 12:28:00 am, Anonymous बेनामी कहते हैं...

Bahoot Khoob kaha .Khuch aur ho jaye

 

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