09 जुलाई, 2005

कविता की अर्थी

नून-तेल के दायरे से
निकली जब जिन्दगी ।

माल असबाब भरे पङे थे
भविष्य के गोदामों में ।

महफिल की वाह वाही से
थके थे कान वहाँ पर ।

टकटकी लगा अब भी
चाँद को देख रहा था ।

कल की दिनचर्या बुनकर
आखिर जुलाहा सो गया ।

मस्जिद में बस नमाज पङी थी
इधर सपने में वह चीख पङा ।

देखा , कलमों के सेज
पर कविता की अर्थी थी ।

2 टिप्पणी

At 7/10/2005 11:07:00 pm, Blogger अनूप शुक्ल कहते हैं...

'कलमों के सेज पर कविता की अर्थी '
सेज पर जो कविता की अर्थी थी उसको कंधा कौन दे रहा था?

 
At 7/12/2005 01:53:00 am, Blogger Prem Piyush कहते हैं...

अनूप जी,
काश पहले आकर इक बार पुछते ।
भुले को याद वो इक प्यार दिलाते ।

खुदगर्जी कंधों को रोक तुम लेते ।
उसे एक बार फिर जिला जो देते।

 

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