छिपा है बचपन
कैसे कहूँ मैं
बचपन छिपा है
मेरा अभी भी ।
खेलता रहा
यौवन के घर भी
छोरा मुझमें ।
मिलते रहे
बचपन के मीत
गले लिपट ।
भींगता रहूँ
निज आँगन मैं
बरसातों में ।
खेलना चाहूँ
मैं सङक किनारे
बच्चों के गेंद ।
लुढ़काता हूँ
नजरें बचाकर
रास्ते के गिट्टी ।
झुलते आमों
को लपक लूँ फिर
बीच बगिया ।
नदी तट मैं
फिर कुद पङता
वही झपाक ।
छिपता रहूँ
अपनों से मैं अभी
पीछे धपाक ।
कुट्टी करूँ मैं
अगले दिन फिर
हूई जो दोस्ती ।
है बचपना
अनमोल जो मेरा
यहाँ सलोना ।
बङा हो जाए
कोई, छोटा ही रहा
माँ-बाबुजी से ।
चढते जाते
पचपन सीढियाँ
बचपन से ।
दौङती जाती
ललाट की लकीरें
चिंता फिक्र में ।
कहाँ छिपता
उनका बचपन
दिख जाता है ।
एक सबेरा
बचपन निखरा
नाती के संग ।
फिर से वही
प्रेम की छाँव माँगे
बचपना सा ।
( नानी-माँ को सादर समर्पित )
-- प्रेम पीयूष
यह हायकू कविता रंगीन लिखावट में यहाँ देखें ।
1 टिप्पणी
beautiful poem.
Yes, we all have a child heart, mind and sould within us :).
Silky Moon
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