25 जून, 2005

छिपा है बचपन

कैसे कहूँ मैं
बचपन छिपा है
मेरा अभी भी ।

खेलता रहा
यौवन के घर भी
छोरा मुझमें ।

मिलते रहे
बचपन के मीत
गले लिपट ।

भींगता रहूँ
निज आँगन मैं
बरसातों में ।

खेलना चाहूँ
मैं सङक किनारे
बच्चों के गेंद ।

लुढ़काता हूँ
नजरें बचाकर
रास्ते के गिट्टी ।

झुलते आमों
को लपक लूँ फिर
बीच बगिया ।

नदी तट मैं
फिर कुद पङता
वही झपाक ।

छिपता रहूँ
अपनों से मैं अभी
पीछे धपाक ।

कुट्टी करूँ मैं
अगले दिन फिर
हूई जो दोस्ती ।

है बचपना
अनमोल जो मेरा
यहाँ सलोना ।

बङा हो जाए
कोई, छोटा ही रहा
माँ-बाबुजी से ।

चढते जाते
पचपन सीढियाँ
बचपन से ।

दौङती जाती
ललाट की लकीरें
चिंता फिक्र में ।

कहाँ छिपता
उनका बचपन
दिख जाता है ।

एक सबेरा
बचपन निखरा
नाती के संग ।

फिर से वही
प्रेम की छाँव माँगे
बचपना सा ।

( नानी-माँ को सादर समर्पित )
-- प्रेम पीयूष

यह हायकू कविता रंगीन लिखावट में यहाँ देखें ।

1 टिप्पणी

At 8/06/2005 12:27:00 am, Anonymous बेनामी कहते हैं...

beautiful poem.

Yes, we all have a child heart, mind and sould within us :).

Silky Moon

 

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