07 मई, 2005

विश्वास का एक आवरण

जिन्दगी की खुली किताब के
श्वेत-श्याम उन पन्नों को,
मौसमी बयारों से बचाता है
विश्वास का एक आवरण ।

अनजानी राहों का मुसाफिर
गलियों से जब गुजरता है,
फीकी हँसियों से बचाता है
विश्वास का एक आवरण ।

मैखाने का खनकते प्यालों ,
धुमिल चेहरों के धुँए के बीच,
अनास्क्ति की चादर ओढाता
विश्वास का एक आवरण ।

राही जब थकने लगता है,
सराय जब पास बुलाता है,
शक्तिपुंज सा न रुकने देता
विश्वास का एक आवरण ।

2 टिप्पणी

At 5/07/2005 06:40:00 am, Blogger अनूप शुक्ल कहते हैं...

बंधुवर ये कविता के हर पैरा की तीसरी पंक्ति शायद मादा है तथा चौथी पंक्ति नर.कैसे इनकी संगति है समझ नहीं आ रहा है...ती को आवरण से जोड़ा गया है.ई क्या ठीक है?

 
At 5/07/2005 04:27:00 pm, Blogger Prem Piyush कहते हैं...

अनूपजी,
वर्तनी में सुधार की आशा सार्थक है आपकी । लिजीए मेल करा दिया ।
सधन्यवाद,

 

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