~ प्रेमपीयूष ~
चिट्ठी की हुई विदाई, चिट्ठा से हुई सगाई, भावों के ससुराल चली, ले भानुमती की पिटारी, एक ब्लाग या पाती ।
31 जुलाई, 2005
26 जुलाई, 2005
प्रेमचंद - 125 वाँ जन्मदिवस
हिन्दी के कथा-सम्राट प्रेमचंद के 125 वाँ जन्मदिवस ( 31 जुलाई) के अवसर पर विश्व के कोने-कोने में फैले हिन्दी ब्लागर, अपने-अपने आसन पर बैठे ही आपस में छोटा-मोटा कुछ आयोजन कर सके तो कैसा रहेगा ।
हमारी सरकार, प्रेमचंद के जन्मग्राम लमही, जो कि वाराणसी के पास है, में वर्षभर चलने वाले कार्यक्रम आयोजित करने जा रही है । यों लखनऊ और गोरखपुर में भी क्रार्यक्रमों की तैयारियाँ चल रही है । चले भी क्यों नहीं, प्रेमचंद ने जीवन के कुछ वर्ष जो यहाँ भी बिताए थे ।

लेकिन लमही में उपस्थित होंगे सैकड़ों साहित्यप्रेमी जिनमें होंगे राजेन्द्र यादव , नामवर सिंह, दूधनाथ सिंह, श्री लाल शुक्ल आदि । वहाँ के भव्य सरकारी कार्यक्रमों में मुलायम सिंह यादव एवं सूचना एवं प्रकाशन मंत्री जयपाल रेड्डी की सरकारी घोषणाएँ भी होंगी । कितनी घोषणाएँ पूरी होंगी कितनी पेन्डुलम की तरह लटकेगी , यह तो कालचक्र ही बताएगा । यूँ संभावित घोषणाएँ हैं, एक राष्ट्रीय स्मारक और मुंशी प्रेमचंद शोध एवं अध्ययन संस्थान की स्थापना । लेकिन आवश्यक प्रकियाएँ है - सरकारी घोषणा, भवन निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण, राशि आवंटन, फिर उस आवंटन में केन्द्र और राज्य सरकार का अंश, सबसे महत्वपूर्ण है इन सबके लिए दफ़्तरो की साहित्यिक पेपरयात्रा जो कि पैसेंजर ट्रेन की तरह सरकती है । इन कामों के लिए ठेका किसको मिलेगा यह तो भीतरी बात है । अगर प्रेमचंद का प्रेमकंद बन जाए तो आश्चर्य काहे का ।
इस अवसर पर हमलोग असरकारी रूप से महान कथाकार को कुछ याद करें, कुछ उनके लेखों को छुएँ, कुछ उनके जीवन को झाँके, कुछ पढ़े , कुछ कड़ियाँ दें तो शायद आप लोग मुझसे राजी होंगे ।
मित्रगण, मैं भी आपकी तरह ही प्रेमचंद की कहानियों एवं उपन्यासों का दीवाना हूँ, जो समकालीन हिन्दी साहित्य एवं समाज का आइना है।
आइए न, इस आइने में हम हिन्दी प्रेमी आपस में बहुत साहित्यिक चर्चा न ही सही, कुछ गपशप ही करें ।
15 जुलाई, 2005
चिट्ठाकार मंडली नमो नमः ।
ब्लाग कहो या चिट्ठा ,खट्टा हो या मीठा
सुलेख हो या कुलेख, मिले तालियाँ या गालियाँ ।
जो मन में आये लिखो, सीखो या सिखाओ
मुफ्त़ में मेरे जैसा कवि-लेखक बन जाओ ।
देशी बोली में कुछ सुनाओ, हम सब दोपाया जन्तु हैं
यहाँ भी कई दल हैं, अच्छे-भले और चपल तन्तु हैं ।
जय रामजी की, अपनी तो एक ही तसल्ली है
अनिर्मित सेतु बनाने को, हमारी एक बानर टोली है ।
चिट्ठाकार मंडली नमो नमः ।
12 जुलाई, 2005
और नज्म़ जिन्दा रह गये
जिन्दगी थी, मस्ती भी थी,
दौलत थी, इक गश्ती भी थी ।
इक जवानी थी, रुबाब भी था,
दिवानी थी, इक ख्वाब भी था ।
हँसती गलियों में नकाब भी था,
रंगीनियों का इक शबाब भी था ।
जुमेरात शायद वह आबाद भी था,
जुम्मे के रोज़ वह बरबाद भी था ।
उस शाम साक़ी भी साथ न था ,
दो नज्म़ ग़ज़लों का बस याद था ।
09 जुलाई, 2005
कविता की अर्थी
नून-तेल के दायरे से
निकली जब जिन्दगी ।
माल असबाब भरे पङे थे
भविष्य के गोदामों में ।
महफिल की वाह वाही से
थके थे कान वहाँ पर ।
टकटकी लगा अब भी
चाँद को देख रहा था ।
कल की दिनचर्या बुनकर
आखिर जुलाहा सो गया ।
मस्जिद में बस नमाज पङी थी
इधर सपने में वह चीख पङा ।
देखा , कलमों के सेज
पर कविता की अर्थी थी ।