26 मार्च, 2005

ब्लागर खेले होली रे भैया, ब्लागिन खेले होली हो

होली है ... होली है ....
सारा रा रा रा रा होली है ....
अरे भैया, हमको आज रोको मत , हम नशे में हूँ । भर्चुअल भाँग की गोली खिला दी है रमणजी ने । मैं ज्यादा तो नहीं बोला न ।

देवाशीषदा के यहाँ कौन नहीं जायगा आज, बताइये कौन नहीं जायगा , सब जाएगा, सब जाएगा । देवाशीषजी.... हमारी टोली आ रही है, रेडी रहिए। जब सब ब्लागर देवाशीषजी का असपेसल दही-बङे खायगा तो वहीं डेरा जमा लेगा। ओ भैया जीतूजी, एक गिलास आप भी पियो न, कमेंट भी तो करना है । इंद्रजी आसन से उतरो भैया, लो शिव का भांग पियो । कैसा लगा, नहीं पियोगे, हमारी बात समझ में नइखे आवेगी । स्वामीजी क्या हुआ, ध्यान तोङिए भाईसाब, हम भी तो जाने कि आज नशे का क्या रंग गेस किया है आपने।

बलागर दारु नही पीते, कभी नहीं पीते। आस्तिक नास्तिक हम सब बस भर्चुअल भंगेरिये हैं,बस वही हमलोग आज पिये हैं। दारु का दो बोतल तो डांडी के समुन्दर किनारे मिला है, कुछ नमकहरामों ने जो पी छोङा था । खद्दरधारी मालिक तो फोटो खिंचवाकर निकल गये । बुरा मत मानों होली है । रतिजी बताइये तो जरा, ये भले घर के नेता पतंगे क्यों उङाते हैं ।

अरुणजी, मेरे लिए दो भैया एक और ग्लास, प्लीज...., पी लेने दो पहली बार और अंतिम बार खाली आज भर।

अरे भैया आप जापान के कोने में क्यों बैठे हो, रंगों की पोटली तो खोल दिए कई दिन पहले से ही । हमको भी लगा दो न । सब हिन्दुस्तानी को एके धरम में रंग दो न । हाँ थोङा फुर्ती का भी रंग डाल दो, वही जापानी कलर । यहाँ सबको पुकार- पुकार कर अक्षरग्राम-अनुगूंज में बुलाना पङता है । थोङा आप भी लगा लो, आपका भी आलस्य खतम हो जाएगा ।

मानोशीजी , एक गजल गाकर चुप क्यों हो गयीं आप । बांग्ला बुजेन तो । दोलेर एकटा गान करुन ना प्लीज ।

ऐ लिजिए पंकजजी आ गये । इतना पकौङा, पंकजजी कौन खायगा इतना । वाह क्या खुब बने हैं।
आशीषजी , अतुलजी दिखा दिजिए ना उस दिन वाला ठुमका , मजा आ जाएगा ।

अरे वाह , क्या खुब
होली है ... होली है ...
बुरा मत मानो होली है ।

शैल भैया आप भी अनुप भैया के साथ क्या ग्लास लेकर वहाँ बैठे हो , यहाँ आओ बलागिंग होली है , लो रतिजी के यहाँ से आये हुए बङे खाओ । मानोशीजी के यहाँ से आये मालपुआ तो ज्यादातर रणवीरजी पहले ही साफ कर दिए हैं ।

हो भाईलोग, टाईम केतना हुआ, देवाशीषदा के यहाँ जाना है कि नहीं। अब सब उठो रे भैया, हाथ पकङो , आशीषजी एक बार और लगाके वही ताल, हाँ मनीषजी बजाइये ना हरमुनियम मस्ती का ।

मोहन खेले होली रे भैया, राधा खेले होली हो ।
ग्वाला खेले होली रे भैया, ग्वालिन खेले होली हो ।
ब्लागर खेले होली रे भैया, ब्लागिन खेले होली हो ।
हमहें खेले होली रे भैया, तुम्हें खेले होली हो ।

होली है ... होली है ... होली है ...

16 मार्च, 2005

अनुगूंज 8 - शिक्षा: आज के परिपेक्ष्य में

आशीषजी, शिक्षा के बारे में चर्चा प्रारंभ कर रहें है सो मैं भी शिक्षा के लिए भिक्षाटन को निकल पङा हूँ । यह तो हमें संस्कारों में मिल हुआ है न गुरूजी के आश्रम से। नवोदय के गुरुजी ने सिखाया कि - बेटा प्रेम एक चीटीं को भी गुरुजी मान लेना चाहिए , सो मेरे जैसा मुढ इस मंत्र को गले के लाकेट में बांधकर घुमता रहता है । इधर कुछ महीनों पहले बलागिंग विधा भी सीख ली है । कभी नए-नए विचार दिमागी तंत्र को हिला देते है तो कभी आन-लाइन पढाई भी हो जाती है । मेरे चिट्ठाकार बंधुगण थोङा-बहुत ज्ञान मेरे झोली में भी डाल देते हैं।

Akshargram Anugunjबरामदे मे अभी एक सज्जन आए हैं। वे माँ के विद्यालय शिक्षा समिति के सचिव हैं, स्कुल के बच्चों को खिचङी खिलाना है न इसलिए सामान खरीदने जाना है । सरकार ने आदेश दे रखा है सो उसका अनुपालन सर्वोपरि है । कितनी दूरदर्शी है हमारी सरकार , जिसे पता है कि भुखे पेट भजन न होए गोपाला । यही सरकार स्कुल चले हम का सुमधुर गीत सुनाकर नंग-धरंग बच्चों को बुला रही है । आओ बेटा आओ , हम जानते थे , तुम जरूर आओगे , पौष्टिक खिचङी की खुशबू जरुर पहुँची है , तुम्हारे झोपङी तक ।

एक दिन फिर सरकार ने स्कुल के नाम दो हजार का चेक भेज दिया एक पार्ट टाइम नारदजी के हाथों से, साथ मे कह गया कि इसी सप्ताह खर्चा करके रिपोर्ट जमा कराना है आफिस में । मगर अभी चेक जमा करने बैंक में कौन जाएगा । 200 विद्यार्थी पर दो शिक्षक , कौन खिचङी पकाने की निगरानी करेगा, कौन पिछला रिपोर्ट लिखेगा । 7वीं के बच्चे आज सोच रहे है कि हिन्दी की नया पाठ आज शुरू होगा । बाकी छह क्लासों के बच्चे तो आतुर हैं ही। आशीषजी, अगर कभी उन बच्चों के चेहरों को देखने का मौका मिले तो पता चलेगा कि उनका भुख खिचङी से ज्यादा नये रंगीन किताबों पर है । दुसरे शिक्षक पसीने से भींग रहे हैं उनको सम्हालने में । खैर दयालु सरकार का चेक आज ही जमा करना है । बैंक के पास में किताब की दुकान पर इतनी भीङ । सिनेमा हाल के सामने खङे रहने वाला दीपक आज किताब की दुकान पर । सुरज पश्चिम में कहीं उगा तो नहीं । पुछने पर पता चला की टीचर का बहाली होगा न , उसी का फारम निकला है । चलो अच्छा हुआ नये शिक्षकों की बहाली होने से काफी आराम हो जाएगा । मजे की बात है की बहाली की घोषणा और चुनाव की संभावना में गणितीय संबंध है । अब निश्चित हो सकते है कि दीपक को किसी पार्टी के कार्यकर्ता का मौसमी रोजगार मिल सकता है । इंटर पास है न सो सर्टिफिकेट का लेमिनेशन भी करा रखा है उसने । दादाजी के रटी रटाई बातों का अब उस पर असर नहीं होता है । उनको आठवीं पास करने पर बुलाकर नौकरी दी थी सरकार के बाबु ने । संस्कार का असर तो संतति पर पङता ही है । भला परिवार का है दीपक सो दूसरे सहपाठी दोस्तों की तरह उसने अभी तक पुलिस की मार नहीं खाई है । मगर रेलवे की गैंगमैन की नौकरी के परिक्षाओं के सिलसिले में वह जुझारु पुरे भारत भुमि को निहार आया है । जब वह दिल्ली जा रहा था तब उसने दो एम.ए. पास लङको को भी उसी परीक्षा में शामिल होते जाते देखा था । एक बार आसाम के छात्रों नें उसे विदेशी शत्रु की तरह उसे मारा भी । मारने वाले छात्र भी आखिर नौकरी करना चाहते थे । बाहर के छात्र अगर घर की नौकरी ले लेंगे तो उनके छिलने के लिए प्याज भी कहाँ बचेगा । उग्रवाद का धंधा दिनोंदिन मंदा हो गया है । केबल टी.वी. के संस्कारी युवक छोटा-मोटा प्रेमभरा संसार चाहते है । प्रेयसी दहेजप्रथा के विपक्ष में प्रीतम समर्पित है । वे पान का दुकान खोल लें या गैरेज खोल लें, दो जुन की रोटी तो मिल ही जाएगी । तो सर्टिफिकेट का क्या होगा , हाँ दादाजी की तरह अपने पोते को दिखाऐंगे ।

पढते हो क्यों कमाने के लिए ,
कमाते हो क्यों,खाने के लिए ।

कमोवेश बात सही लगती है । पढो-पढो , शिक्षित बनों और देश को आगे बढाओ । मगर बेरोजगारों की दौड में, नौकरी की गारंटी, न बाबा न । दुसरा कोई भी धंघा या कारीगरी सिख लो , काम आ जाएगा । बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तो खुब अच्छे लोगों के लिए है । अधिकतर प्रतिष्ठित संस्थानों से चुने हुए लोग हैं । राष्ट्र के सकल आय में वृद्धी तो जरूर करते है और साथ ही अपने शिक्षा का आंशिक उपयोग का मुक दर्शक बने रहते है । कुछ तो गुप्त नामों से बलागिंग भी करेंगे और सृजनात्मक लेखों में चुप्पी मारेंगे । कुछ दुसरे मधुशाला में जाकर टैक्स जमा करेंगे । उनसे तो भले 5 किलास तक पढा लिखा प्रवासी चुन्नीलाल है जो पंजाब के खेतों में मट्ठा पीकर बासमती उपजाता है । आपने उस दिन रेस्तरां में बिरियानी का जो आर्डर ग्रेजुएट बेयरे को दिया था न वह उसी बेजोङ बासमती चावल का बना था । बासमती के प्रसंग से आपको पेटेंट हनन का प्रसंग याद आ रहा होगा । हल्दी , नीम भी जुट गया न उस लिस्ट में । भाइयों हमारी ज्ञान संपदा की लिस्ट काफी लंबी है । बाकी धुंधली सुची देखना चाहते हैं या चाहते हैं कि विदेशी लोग पहले उस सुची को छान लें ।

धन्य है वे सपूत जो शिक्षा से मातृभुमि की ज्ञान संपदा एवं अन्न संपदा को बढा रहे हैं, और इसे सिरमौर राष्ट्र बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं । आशावादी दृष्टीकोण से अवश्य ही कह सकते हैं कि हम शिक्षित थे , हो रहें है और पूर्ण रुपेण हो भी जाऐंगे। जरुरत है अपने अंदर के श्रोतों को जानने का और उनको सही दिशा देने का। मुझे तो शिक्षा का यही एक मात्र स्वरूप दिखता है ।

12 मार्च, 2005

निःशुल्क बिन्दी ( फेविकोन) पाईए

मेरे धैर्यशील पाठकों को देने को कुछ ज्यादा तो नहीं है परन्तु थोङी सेवा कर सकता हूँ ।

हमने वेबसाइट के नाम (मस्तक) के सामने लगने वाले छोटे से प्रतीकात्मक चित्र फेविकोन के लिए बिन्दी शब्द का प्रयोग किया है , गुणीजन बताऐंगे, कैसा रहेगा । कृप्या निःशुल्क टिकली पर सारी जानकारी के लिए इस कङी से कुछ पलों के लिए मेरे अंग्रेजी चिट्ठे पर जाएँ

11 मार्च, 2005

मुर्गी माँ

छोटे छोटे नन्हें बच्चे,
कुछ झुठे, कुछ सच्चे,
ठुमक
ठुमककर चलते हैं,
बीच में इठलाती मुर्गी माँ ।

मिट्टी-बालु खोद-खोदकर,
दाना-कीङे ढूँढ-ढूँढकर,
सिखाती जाती चूजों को,
खुद कम खाती मुर्गी माँ ।

कुछ कमजोर छोटे चूजे,
फँस जाते झाङी के पीछे,
दौङकर खोज निकालती उनको,
फिर गिनती करती मुर्गी माँ ।

देखकर आते दूर कुत्ते को,
छिपाती कोने में बच्चे को,
जोर-जोर से चिल्लाकर तब,
सावघान करती मुर्गी माँ ।

जव कोई उसके चुजे पकङे,
या फिर पिजङे में ही जकङे,
पता नहीं कहाँ से आती ताकत,
तब मुर्गा बनती मुर्गी माँ ।

January 31, 2005


05 मार्च, 2005

जीमेल आमंत्रण चाहिए

ई-मेल के लिए जीमेल का एक अकाउंट मुझे भी दिलवाकर लिफ्ट करवा दें ।

04 मार्च, 2005

मधुमक्खी

मधुमक्खी का एक छत्ता था ,
मधुघट वहाँ पर एक रक्खा था ।

पता नहीं कैसे आग लगी वहाँ,
खोने लगा फिर सबका जहां ।

सफेद मोम का दिखने लगा डेरा,
मगर छोङ न सके फिर वो बसेरा ।

मक्खी नहीं, सब डंक वाले मधुमक्खी,
फिर रसों से मधुघट भरते जाऐँगे ।

कोई स्वार्थ नहीं, मधु घानी चलाऐंगे ,
सब मिलकर गुँजनेवाला धुन गाऐंगे ।

02 मार्च, 2005

अनुगूँज 7 : बचपन का मेरा सीकिंया मीत

इंद्रजी का आमंत्रण के प्रत्युतर में विलंब का प्रश्न ही कहाँ उठता है। शीर्षक तो ऐसा दे रखा है कि कलम ( की-बोर्ड - मुहावरे में बदलाव की आवश्यकता है) तोङकर लिखने को मन करता है । कलम की बात से याद आया, अभी जिस तरह से गोली-लेखनी ( बाल-पेन ) का चलन है , वैसा आपके या मेरे बचपन में नहीं हुआ करता था । अभी तो लिखो-फेको का जमाना है , या फिर जेल-पेन नहीं मिला तो छोटकु नाराज । भविष्य के बच्चे शाय़द इस तरह जिद्दी नहीं होंगे , सीधे की-बोर्ड पर हाथ साफ करेगें । सैकङों फोंट की सहायता से उसका सुलेख देखने लायक होगा । चाहे कुछ भी हो , आज बचपन का मेरा बेजान सीकिंया मीत पेंसिल के बारे में कहना चाहूँगा । बीती बिसारना नहीं चाहता हूँ, जिसके कारण मैं आज यहाँ हूँ । Akshargram Anugunj


बात उन दिनों की है जब मैं एल.के.जी. या यु.के.जी. में पङता था, उस समय बाल-पेन का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था । पेन भी नही मिलता था मुझे ,सो दूसरों का देखकर ललचा जाता था । ऐसी बात नहीं की गरीबी थी , हम तीनों भाई बहन में मैं ज्यादा भुल्लकर था । आज कलम दिया कि दो दिन में गायब । सो पेन बंद और रुल-पेंसिल (एच.बी.) चालु हो गया । जब नया पुरा लंबा पेंसिल भी खो दिया तब पेंसिल काट कर दिया जाने लगा । मैं तो महान था ही , हमारे क्लास के सहपाठियों में भी विद्यार्थियों के सारे गुण अलग अलग परिमाणों में रहे होंगे । मेरे बको ध्यानम् का फायदा दुसरे किसी कि काग चेष्टा को मिलता होगा । नियमतः एक दिन आधा कटा हुआ पेंसिल भी गायब हो गया । माँ के धैर्य का बाँध टुट गया । माँ थोङा गुस्साकर एक अनोखा उपाय ढुँढ निकाली । मुझे काला धागे का बङा रील लाने को कही । कई धागे को मिलाकर पतला डोरा बनायी। मैं आज्ञाकारी बालक की तरह सामने खङा था । माँ मुझे कमीज उपर करने को कही और उसी धागे से कमर का नाप ली आधा कटा हुआ पेंसिल लाकर पेंसिल के दूसरे छोर पर खाँच बनायी । अब धागे को कमर में बाँध दी । बाँधने के बाद लंबा सा धागा झुल रहा था । माँ धागे को पेंसिल के खाचें में बाँध दी और पेंसिल डाल दी पाकेट में । जा बेटा , तेरा पेंसिल अब नहीं खोएगा । स्कुल जाने लगा वैसे ही । क्लास में लिखते समय पेंसिल को बाहर कर लिखता उसी तरह से धागा से बँधा हुआ । कुछ दिन ऐसे ही चला , हाँ खेलते समय झट से पेंसिल बाहर आ जाता और फट से मैं भी उसे भीतर कर लेता । मैं ठहरा खोजी रचनात्मक दिमागी । फिर एक दिन मैंने पता कर ही लिया कि माँ की पेंसिल में गांठ लगाने की क्या विधि है । बस और क्या था , खेलने से पहले मैंने नख-दंत की सहायता से उसे खोल लिया, और दौङ पङा उन्मुक्त मैदान की और । खुल जा सिम-सिम तो सीख लिया था लेकिन बाँधने का गांठ मंत्र न सीखा। अक्कर बक्कर का मंत्र पढा, मतलब किसी तरह से गाँठ लगाकर फिर पेंसिल को पाकेट में डाल लिया । अब अपना बाँधा हुआ गाँठ न तो खोल सकता था न ही पेंसिल के खाँच पर वह फिट ही बैठा , थोङा ढीला सा लग रहा था । डाँट पङेगी इसलिए माँ को कहा भी नहीं। मगर होनी को कौन रोक सकता है । एक दिन माँ जान ली की मेरा पेंसिल फिर खो गया है। मैं तो निश्चित था कि फिर बँधा पेंसिल कमर की डोरी में और ज्यादा गाँठे पङेगी , मार भी पङ सकती है । मगर आशा के विपरीत, इस बार माँ चेतावनी देकर नयी पेंसिल हाथ में दे दी । भगवान को तो पता नहीं धन्यवाद दिया की नहीं ,मगर माँ के पास पेंसिल न खोने की कसम खायी ।उसके बाद से बहुत हद तक सुधर गया था मैं ।


मगर आपलोग तो जानते ही हैं कि कसम तोङने के लिए भी होते हैं । भाई साहब , अभी तक पुरी तरह नहीं सुधरा हूँ । कभी कीमती कलम खोने पर याद आ जाती है कमर की काली डोरी । अगर मोबाइल फोन और कंपनी आई.डी. कार्ड की तरह पैन लटकाने का प्रचलन हो तो पक्का पैन लटकाकर चलुँगा ।

मेरा पार्कर पेन कमीज के पाकेट से झांककर यह सब स्क्रीन पर लिखता देखकर खुश हो रहा होगा ।

मगर कान में एक बात धीरे से कहूँ इंद्रजी , बचपन का अधकटा पेंसिल सबसे कीमती था ।

अनुगूँज ६: चमत्कार या संयोग ?

हमारे घर का वातावरण धार्मिक किस्म का है । टीन एज में नास्तिक बनने का मेरा जुझारु प्रयास टाँय-टाँय फिस्स हो गया था । जिनको आप अधिक चाहते है, उनसे ही झगङा भी ज्यादा होता है, वरना सङक के अजनबी से कौन झगङता है । माँ की चेतावनी सच हो गयी थी । काफी ठोकरें खाकर कुछ अज्ञात, अदृश्य सर्वशक्तिमान पर भरोसा हो गया । खैर मैं वो प्रसंग कहने जा रहा हूँ,जिसका मिलता जुलता शीर्षक अनुगूँज ने पहले ही दे रखा है ।

माँ अब बहुत कम ही उपवास रख पाती है । सरकारी स्कुलों की बढती जिम्मेदारियाँ और स्वास्थ्य की विवशताओं के कारण प्रभु से क्षमा प्रार्थना कर लेती है । फिर हमेशा की तरह , उस दिन उसने अपने अभीष्ट देवी की पुजा की। सुबह अभीष्ट देवी की पुजा कर वह तैयार होकर स्कुल जाने लगी । पुजा के बाद पहले प्रसाद गौ माता को देने की विधि है । समयाभाव के कारण पवित्र प्रसाद वह साथ ही लेकर स्कुल जाने लगी । चुँकि रास्ते में बहुत सारी गाऐं मिल जाती है , उन्हें प्रसाद खिलाकर फिर स्कुल में खुद प्रसाद ग्रहण करना चाहती थी । सो प्रसाद का डब्बा माँ अपने बैग में ले ली । उस दिन सुबह बारिश भी हुई थी इसलिए घर के सामने, सङक के किनारे थोङा पानी जमा हो गया था । एक गाय वहीं पर पानी पी रही थी । माँ उसके पास खङी हो गयी और उसके सिर उठाने का इंतजार करने लगी । मगर पानी पीकर वह फिर घास खाने लगी , इंतजार के बाद एक बार भी सिर नहीं उठाया । माँ दुखित हो गयी , क्योंकि घर से निकलते ही प्रथम अनुरोध अस्वीकार सा हो गया । निराश होकर वह आगे बढ चली, यह सोचकर कि किसी दुसरे गाय को खिला देगी । 10 -15 कदम बढी ही थी कि एक छोटा बछङा सामने आकर खङा हो गया । फिर अपने माथे से माँ के साथ खेलने लगा । पहले तो माँ ने उस बछङे को पुचकार कर अलग करना चाहा , मगर वो भी जिद्दी ही निकला । मेरे जैसे बछङे की माँ हो या उस बछङे की माँ , हरेक माँ को उपर वाले ने छठी ज्ञानेन्द्रिय दे रखी है । वह समझ गयी कि वह कुछ माँग रहा है , सो यह जानकर भी कि इतना छोटा बछङा नहीं खा सकता है , वह प्रसाद से एक दाना लेकर उसके मुँह में देने लगी । वो गाय जिसने पहले सिर नहीं उठाया था, उस बछङे की माँ थी । अब वो सब देख रही थी । बछङे को मेरी माँ के पास देखकर जल्दी- जल्दी गौ भी वहाँ पहूँच गयी । और सिर उठाकर वो भी शायद प्रसाद माँगने लगी । एक माँ की भाषा दुसरी माँ समझ गयी । प्रसाद खिलाते समय कुछ नीचे गिरे दाने को गौ ने देखा तक नहीं । बाकी प्रसाद गौ ने बङे प्रेम से खा लिया । गिरे हुए चने को माँ चुनकर फिर एक कागज में रख ली, धोकर खाने के लिए । शायद बछङे का अपना उद्देश्य प्राप्त हो गया था , सो वह दूर जाकर उछल रहा था । आखिर कभी कोई मुक जन्तु भी मनुष्य के मन की भाषा समझ सकता है क्या । कोई इसे संयोग कहे या आस्था या फिर दैवीय चमत्कार लेकिन जो कहा, वह सच है ।

01 मार्च, 2005

मैं पास अभी सिर्फ शब्द हैं ।

जब मै अकेला हो जाता हूँ,
तुम साथी बनकर आते हो ।

जब अंधेरा छाने लगता है,
तुम दीपक एक जलाते हो ।

जब मन प्रश्न एक पुछता है,
प्रत्युत्तर तत्क्षण बताते हो ।

जब आत्मा कुछ माँगती है,
तुम गठरी खोलकर देते हो ।

जब उद्देश्यहीन मैं भटकता हूँ,
तुम दूर खङे होकर बुलाते हो ।

जब भ्रम कोई मन में होता है,
तुम सत्य का दर्शन कराते हो ।