कविता की अर्थी
नून-तेल के दायरे से
निकली जब जिन्दगी ।
माल असबाब भरे पङे थे
भविष्य के गोदामों में ।
महफिल की वाह वाही से
थके थे कान वहाँ पर ।
टकटकी लगा अब भी
चाँद को देख रहा था ।
कल की दिनचर्या बुनकर
आखिर जुलाहा सो गया ।
मस्जिद में बस नमाज पङी थी
इधर सपने में वह चीख पङा ।
देखा , कलमों के सेज
पर कविता की अर्थी थी ।
2 टिप्पणी
'कलमों के सेज पर कविता की अर्थी '
सेज पर जो कविता की अर्थी थी उसको कंधा कौन दे रहा था?
अनूप जी,
काश पहले आकर इक बार पुछते ।
भुले को याद वो इक प्यार दिलाते ।
खुदगर्जी कंधों को रोक तुम लेते ।
उसे एक बार फिर जिला जो देते।
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