पुरूषार्थ और प्रेम
पुरूष कहलाने वाली एक काया के,
झुके कंधे और सशक्त छाती मध्य,
छिपा है, एक कोमल सा मुखड़ा,
विश्वस्त होंठ कुछ बुदबुदाते हैं ।
फिर निःशब्द होंठ, आज गुँथ जाते हैं ।
धीमे-धीमे बढ़ते उसके हाथें,
गुदगुदाती हूई फिर अंगुलियाँ,
श्यामल घटाओं के गजरों में,
दिशाहीन बस चलती जाती है।
माथे चमकता, ध्रुव सुंदर दिखता है ।
मुर्तिकार की थिरकती हैं अंगुलियाँ,
आभास कराती है, आज माटी को,
उसका अस्थित्व, उभरते आकार ।
जीवंत प्रतिमा - यही सत्य है, सुंदर है ।
माटी - मुर्तिकार दोनों मोहित हैं ।
अनोखी सृष्टि में दो दृष्टि,
वादियों में, उसके चंचल नयन,
उन पहाड़ियों के मध्य घाटी,
बस आज निहारा ही तो करती है ।
मनुज मन आह्लादित हो जाता है ।
चित्रकार की एक तुलिका,
इंद्रधनुषी थाली से रंग लिए,
स्पंदन का रंग भरती जाती है,
स्पष्ट दिखता तो, बस गुलाबी है,
चित्रकार आज पुरष्कृत होता है ।
जग को ज्ञान दान देने वाला पुरूष,
सारी कवित्व, विद्वता का पाठ भुलकर,
क्षणभर हेतु, ज्ञान के नवीन बंधन में,
कुछ अपरिभाषित पाठ पढ़ जाता है ।
उसका ज्ञान पूर्ण यहीं होता है ।
सावन की बाँसुरी सी प्रेरित,
मयूर की थिड़कन से कंपित,
तीन ताल के अनवरत पलटों तक,
शयामल घटाओं में अनुगंजन ।
प्रेमभुमि यूँ अनुप्राणित होता है ।
अनुशासित अश्वारोही का पराक्रम,
पाँच अश्वों का लयबद्ध चाल में,
अनुभूति की इस उद्विगन बेला मे,
समर्पित - फिर एक विजयी होता हे ।
पुरूषार्थ फिर परिभाषित होता है ।