16 जनवरी, 2007

पुरूषार्थ और प्रेम

पुरूष कहलाने वाली एक काया के,
झुके कंधे और सशक्त छाती मध्य,
छिपा है, एक कोमल सा मुखड़ा,
विश्वस्त होंठ कुछ बुदबुदाते हैं ।

फिर निःशब्द होंठ, आज गुँथ जाते हैं ।

धीमे-धीमे बढ़ते उसके हाथें,
गुदगुदाती हूई फिर अंगुलियाँ,
श्यामल घटाओं के गजरों में,
दिशाहीन बस चलती जाती है।

माथे चमकता, ध्रुव सुंदर दिखता है ।

मुर्तिकार की थिरकती हैं अंगुलियाँ,
आभास कराती है, आज माटी को,
उसका अस्थित्व, उभरते आकार ।
जीवंत प्रतिमा - यही सत्य है, सुंदर है ।

माटी - मुर्तिकार दोनों मोहित हैं ।

अनोखी सृष्टि में दो दृष्टि,
वादियों में, उसके चंचल नयन,
उन पहाड़ियों के मध्य घाटी,
बस आज निहारा ही तो करती है ।

मनुज मन आह्लादित हो जाता है ।

चित्रकार की एक तुलिका,
इंद्रधनुषी थाली से रंग लिए,
स्पंदन का रंग भरती जाती है,
स्पष्ट दिखता तो, बस गुलाबी है,

चित्रकार आज पुरष्कृत होता है ।

जग को ज्ञान दान देने वाला पुरूष,
सारी कवित्व, विद्वता का पाठ भुलकर,
क्षणभर हेतु, ज्ञान के नवीन बंधन में,
कुछ अपरिभाषित पाठ पढ़ जाता है ।

उसका ज्ञान पूर्ण यहीं होता है ।

सावन की बाँसुरी सी प्रेरित,
मयूर की थिड़कन से कंपित,
तीन ताल के अनवरत पलटों तक,
शयामल घटाओं में अनुगंजन ।

प्रेमभुमि यूँ अनुप्राणित होता है ।

अनुशासित अश्वारोही का पराक्रम,
पाँच अश्वों का लयबद्ध चाल में,
अनुभूति की इस उद्विगन बेला मे,
समर्पित - फिर एक विजयी होता हे ।

पुरूषार्थ फिर परिभाषित होता है ।

01 जुलाई, 2006

कुछ होंठ मुस्काते हैं ।

कुछ होंठ मुस्काते हैं,
थिरकते हैं कुछ बातें,
बातों में मिसरी घोल,
कहते हैं,कुछ अनमोल ।

रिश्तों-नातों से परे,
बिना कोई बंधन के,
बिना वादे-फरियाद के,
प्रीत का बस एक डोर ।

यूँ ही न आती है यह,
तपना पड़ता है उन्हें,
तपिश जीवन सहकर,
परहित में अब जीते हैं ।

छोड़ जाते है अमिट,
एक स्फुर्त मुस्कान ।
सम्मोहित मानवमन को,
उनका स्मरण भी काफी है ।

15 अगस्त, 2005

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ

विश्व के प्रत्येक कोने में रहने वाले भारतीयों को, अपनी धरती की स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ ।

हम सबका यही प्रयास रहेगा कि अपनी राजनैतिक, सांस्कृतिक, वैचारिक एवं भाषाई स्वतंत्रता अक्षुण्ण रहे ।

31 जुलाई, 2005

आज प्रेमचंद जी का बर्थ डे है

जन्मदिन वाले डिजाइन कार्ड को डाउनलोड होने दें। थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा ।

महान कथाकार को हिन्दी चिट्ठाकारों की और से नमन ।

26 जुलाई, 2005

प्रेमचंद - 125 वाँ जन्मदिवस

हिन्दी के कथा-सम्राट प्रेमचंद के 125 वाँ जन्मदिवस ( 31 जुलाई) के अवसर पर विश्व के कोने-कोने में फैले हिन्दी ब्लागर, अपने-अपने आसन पर बैठे ही आपस में छोटा-मोटा कुछ आयोजन कर सके तो कैसा रहेगा ।

हमारी सरकार, प्रेमचंद के जन्मग्राम लमही, जो कि वाराणसी के पास है, में वर्षभर चलने वाले कार्यक्रम आयोजित करने जा रही है । यों लखनऊ और गोरखपुर में भी क्रार्यक्रमों की तैयारियाँ चल रही है । चले भी क्यों नहीं, प्रेमचंद ने जीवन के कुछ वर्ष जो यहाँ भी बिताए थे ।
प्रेमचंद
लेकिन लमही में उपस्थित होंगे सैकड़ों साहित्यप्रेमी जिनमें होंगे राजेन्द्र यादव , नामवर सिंह, दूधनाथ सिंह, श्री लाल शुक्ल आदि । वहाँ के भव्य सरकारी कार्यक्रमों में मुलायम सिंह यादव एवं सूचना एवं प्रकाशन मंत्री जयपाल रेड्डी की सरकारी घोषणाएँ भी होंगी । कितनी घोषणाएँ पूरी होंगी कितनी पेन्डुलम की तरह लटकेगी , यह तो कालचक्र ही बताएगा । यूँ संभावित घोषणाएँ हैं, एक राष्ट्रीय स्मारक और मुंशी प्रेमचंद शोध एवं अध्ययन संस्थान की स्थापना । लेकिन आवश्यक प्रकियाएँ है - सरकारी घोषणा, भवन निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण, राशि आवंटन, फिर उस आवंटन में केन्द्र और राज्य सरकार का अंश, सबसे महत्वपूर्ण है इन सबके लिए दफ़्तरो की साहित्यिक पेपरयात्रा जो कि पैसेंजर ट्रेन की तरह सरकती है । इन कामों के लिए ठेका किसको मिलेगा यह तो भीतरी बात है । अगर प्रेमचंद का प्रेमकंद बन जाए तो आश्चर्य काहे का ।

इस अवसर पर हमलोग असरकारी रूप से महान कथाकार को कुछ याद करें, कुछ उनके लेखों को छुएँ, कुछ उनके जीवन को झाँके, कुछ पढ़े , कुछ कड़ियाँ दें तो शायद आप लोग मुझसे राजी होंगे ।

मित्रगण, मैं भी आपकी तरह ही प्रेमचंद की कहानियों एवं उपन्यासों का दीवाना हूँ, जो समकालीन हिन्दी साहित्य एवं समाज का आइना है।
आइए न, इस आइने में हम हिन्दी प्रेमी आपस में बहुत साहित्यिक चर्चा न ही सही, कुछ गपशप ही करें ।

15 जुलाई, 2005

चिट्ठाकार मंडली नमो नमः ।

ब्लाग कहो या चिट्ठा ,खट्टा हो या मीठा
सुलेख हो या कुलेख, मिले तालियाँ या गालियाँ ।

जो मन में आये लिखो, सीखो या सिखाओ
मुफ्त़ में मेरे जैसा कवि-लेखक बन जाओ ।

देशी बोली में कुछ सुनाओ, हम सब दोपाया जन्तु हैं
यहाँ भी कई दल हैं, अच्छे-भले और चपल तन्तु हैं ।

जय रामजी की, अपनी तो एक ही तसल्ली है
अनिर्मित सेतु बनाने को, हमारी एक बानर टोली है ।

चिट्ठाकार मंडली नमो नमः ।

12 जुलाई, 2005

और नज्म़ जिन्दा रह गये

जिन्दगी थी, मस्ती भी थी,
दौलत थी, इक गश्ती भी थी ।

इक जवानी थी, रुबाब भी था,
दिवानी थी, इक ख्वाब भी था ।

हँसती गलियों में नकाब भी था,
रंगीनियों का इक शबाब भी था ।

जुमेरात शायद वह आबाद भी था,
जुम्मे के रोज़ वह बरबाद भी था ।

उस शाम साक़ी भी साथ न था ,
दो नज्म़ ग़ज़लों का बस याद था ।